कहते है जो समझदार होता है वह कम बोलता है । अनुभव बताता है क़ि मौन कई बार बहुत बड़ी परेशानी से बचा सकता है। इसके उलट अगर कोई आदत से मजबूर होकर एक के बदले दस जवाब देता है और कहता है की मैं चुप क्यों रहूँ किसी से दबकर क्यों रहूँ , तो बहुत बड़ी मुसीबत में फस सकता है। अक्सर लोग वाणी के विराम को ही मौन समझते है। लेकिन किसी व्यक्ति के मन में संकल्पों की उथल पुथल हो रही हों , किसी अन्य व्यक्ति के प्रति उसके मन में द्वेष भावना का ज्वार भाटा उठ रहा हो या उसके भीतर कोई और वासना धधक रही हो तो क्या यह मौन कहा जायेगा ? कहते है पानी सा रंगहीन नहीं होता मौन , आवाज की तरह इसके भी हज़ार रंग होते है । मन और वाणी दोनों का शांत होना ही पूर्ण मौन कहा जाता है। मुख के मौन को बाह्य मौन कहा जाता है तथा मन का मौन अन्तः मौन । एक कहावत है-मीठा बोलना सुखकारी है, उतना ही कम बोलना भी लाभकारी है। पर हमे यह समझ भी होनी चाहिए की जहा मौन रहना चाहिए , वहाँ बोलकर अपने लिए झमेला कभी भी खड़ा नहीं करना है। मौन हमारे मस्तिष्क के सभी इंद्रियों को संयमित रखता है। चुप रहने से वाणी और वाणी के साथ खर्च होने वाली मस्तिष्क की शक्ति संचित होती है। तभी तो कहा गया है की जो व्यक्ति अपने मुख और जबान पर संयम रखता है वह अपनी आत्मा को कई संताप से बचाता है। मौन में रहकर ही हम जीवन जगत के गूढ और सत्य पहलुओं का साक्षत्कार कर सकते है।
Sunday 16 July 2017
मौन वाणी
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