Sunday 27 August 2017

गुणों की शक्ति

कल्पना करे की यदि गुलाब का फूल सुगंधहीन हो जाये तो कौन उसे पाना चाहेंगे । इसके आगे कल्पना करे की फूल में सुगंध है , किन्तु प्रकट नहीं हो रही है तो उसका कितना महत्व रह जायेगा। गुलाब का रंग और रूप उसकी सुगंध से मूल्यवान हो जाता है। गुलाब का रंग और रूप ऐसा न हो फिर भी यदि सुगंध है तो उस पर मोहित होने वालो की संख्या कम नही होगी। आम का फल कैसे भी आकार का हो , अपने स्वाद के कारण मन को भाता है। सुगंध गुलाब का और स्वाद आम का गुण है। मनुष्य की जुबान से निकलने वाले मीठे वचन, हाथो से होने वाले परोपकार , मन और मस्तिष्क में उपजने वाले शुभ विचार ही उसके मोल है । कितने भी महंगे वस्त्र पहने हो, भव्य आवास और धन दौलत हो , स्वस्थ सुंदर  तन हो उनसे पहचान तो बन सकती है लेकिन सम्मान नहीं मिल सकता है। संसार में शुभ वचनो की कमी नहीं। सिद्धान्तों नीतियों के ग्रन्थ भरे पड़े है। वचन मुख तक ही सीमित हो गए, किताबों से बाहर का रास्ता भूल चुके है। इसलिए उन व्याख्यानों का कोई मोल नहीं रह गया है। ऐसे मनुष्य अपना सम्मान खो चुके है। 

सारे लोग अपने गुणों के कारण महापुरुष की श्रेणी में नहीं आ सकते है, किन्तु सारे लोग यदि अपने छोटे छोटे गुणों को भी व्यवहार में बदले तो गुणों से भरपूर समाज की रचना की जा सकती है । भिन्न भिन्न फलो के सारे वृक्ष आकर्षित करते है और विभिन्न स्वादों का आनंद देते है । गुण किसी भी प्रकार के हो , मन को अपनी ओर खीचने वाले होते है। इसी तरह  गुणवान समाज की रचना में छोटे से भी छोटे योगदान का भी महत्त्व है। समाज मात्र शब्दों की शोभा से  नहीं बनते । मनुष्य अपने कर्मो की चिंता करे , अपने गुण विकसित कर प्रकट करे। सारा समाज अपने आप बदल जायेगा। विडंबना यह है मनुष्य के पास इसके लिए समय नहीं है। उसे चिंता है तो दुसरो की । वह अनायास ही अन्यो की सफलता पर ईर्ष्यालु रहता है। सभी में दोष तलासने में उसकी ख़राब आदत संतुष्ट होती है । वह औरो से प्रतिस्पर्धा भी नहीं करना चाहता ,बस उनकी प्रगति को अवरुद्ध करने में लगा रहता है। 

Friday 25 August 2017

संयम है समाधान

हर व्यक्ति समस्याग्रस्त है। कुछ समस्याऐ बाहर की है और कुछ भीतर की। समाधान सभी चाहते है। यह शरीर एक नौका है। ये डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है,क्योकि हमारे कर्म सभी तरह के होने से यह स्थिति बनती है।इसलिए बार बार अच्छे कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है।हमे यह समझ लेना चाहिए की जिस प्रकार एक डाल पर बैठा व्यक्ति उसी डाल की काटता है तो उसका नीचे गिर जाना अवश्य भावी है, उसी प्रकार गलत काम करने वाला व्यक्ति गलत फल पाता है।

मेरा दृढ़ विश्वास है की आज जो बड़े कहलाने वाले लोग उनकी जीवन शैली संयम प्रधान हो जाये तो हिन्दुस्तान का कायाकल्प हो सकता है। सामाजिक परिवर्तन का एक अच्छा रास्ता यह है की बड़े कहे जाने वाले लोग अपनी जीवन शैली को संयम प्रधान बनाये। बड़े लोगो में बड़े व्यापारी उद्योगपति , सांसद, विधायक, मंत्री और सामाजिक नेता यह सभी आ जाते है।अगर इन लोगो के जीवन में संयम आ जाये तो नीचे तबके के लोग स्वयं प्रेरित होंगे। जिनके पास जरुरत भर के 

Thursday 24 August 2017

अमृत सन्देश

हमारा देश धर्मप्रधान होने के कारण ही एक महान देश कहलाता है। यह वही भारतभूमि है, जहाँ से धर्म और दार्शनिक तत्व समूह ने बरसाती नदी के समान प्रवाहित होकर सारे संसार को सराबोर कर दिया था। संसार में अनेक प्रकार के प्रतिद्वंद्वी समूह रहेगे ही, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की एक दूसरे से घृणा की जाए या विरोध किया जाये । प्रत्येक आत्मा में परमात्मा को देखने वाले महापुरुष ही धर्मस्वरूप को समझते है और वे ही अहिंसा की आराधना कर सकते है। अहिंसा एक सनातन तत्व है। अहिंसा , संयम , तप रूप मंगलमय धर्मदीप का प्रकाश यदि world को आलोकित कर दे , तो निश्चय ही धरा से अज्ञान का तमस समाप्त हो सकता है। दुसरो को का अस्तित्व मिटाकर अपना अस्तित्व बनाये रखने की कोशिश अंततः घातक होती है । अहिंसा भारतीय संस्कृति की मुख्य पहचान है। अहिंसा सभी को अभय प्रदान करती है। आज का सभ्य संसार वातावरण में घुटन और अस्वस्थ होने का उदाहरण दे रहा है। आज शांति के लिए एक आध्यत्मिक जागृति आवश्यक है, जो राष्ट्र ,समाज , और परिवार से हिंसा का अन्धकार दूर कर सके। मानव जाति को सुदृढ़ और सुगठित रखने का दिव्य सन्देश है। अहिंसा का अर्थ है किसी की हत्या न करना,खून न बहाना, मन ,वचन कर्म से किसी को कोई दुःख न देना अहिंसा है। अहिंसा के अंतर्गत केवल मानव ही नहीं पशु पंछी , जीव जंतु को भी दुःख पहुचाना नहीं   चाहिए।  अर्थात् अपनी आत्मा के सामान ही सबको मानो। अहिंसा का सम्बन्ध मनुष्य के ह्रदय के साथ है,मस्तिष्क के साथ नहीं। जिसके जीवन में अहिंसा का स्वर झंकृत होता है, वह केवल शत्रु को ही प्यार नहीं करता बल्कि उसका कोई शत्रु ही नहीं है। जिसको आत्मा के अस्तित्व में विश्वास है, वही हिंसा का त्यागी हो सकता है। कुछ लोग अहि

Wednesday 23 August 2017

उदास न हो

जीवन में प्राय: ऐसे पल आते रहते है जब मन उचाट और उदास होने लगता है। एक भय पैदा होने लगता है की कही कुछ गलत तो नहीं होने जा रहा है। बिना किसी कारण मन का उदास होना मन की हताशा और आत्म विश्वास की कमी को प्रकट करता है। जब प्रत्यक्ष कारण हो तो भी यह खंडित विश्वास और नकारात्मक मानसिकता का प्रतीक है। मनुष्य का विश्वास तभी डोलता है और मन तभी निराश होता है जब वह ईश्वर पर अविश्वास कर रहा होता है। चौरासी लाख योनियो में भटकने के बाद मनुष्य योनि प्राप्त करने के बाद भी यदि मन में ईश्वर के प्रति विश्वास और आभार का भरपूर भाव नहीं है तो इसे उसकी अज्ञानता ही कहा जायेगा । मनुष्य योनि में होना ही विश्वास और आशा का सबसे बड़ा आधार है जो कभी उसके मन को डिगने नहीं देता है। यदि उसे मनुष्य योनि मिली है तो यह सबसे बड़ा कारण है प्रसन्न और आशा से भरे रहने का की उसे आवागमन के चक्र से मुक्त करने और संसार के मायाजाल से उबरने योग्य समझा गया है। उसे मनुष्य के रूप में जो समय मिला है वह हताशा और निराशा में व्यर्थ जाने देने के लिए नहीं है । इसका सदुपयोग करना आना चाहिए । दूसरी बात भय और चिंता की है जो परमात्मा को न समझने के कारण है। 

संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अनहोनी कहा जा सके। जो हो रहा है या भविष्य में होने वाला है उसे रोका नहीं जा सकता है। ऐसा इसलिए , क्योकि इसमें ईश्वर की इच्छा है। जिसके हम पात्र है, वही हमे दे रहा है । इसलिए किसी तरह की चिंता और आशंका बेकार है। किसी भी आशंका से दूर जब ईश्वर के न्याय पर विश्वास करना आ जाता है तो मन प्रसन्नता से भर उठता है। ईश्वर की दया का इसी से पता लगता है  की उसने सृष्टी में जितनी भी रचनाये रची है उन सभी में कुछ न कुछ गुण दिए है। संसार में कुछ भी गुणविहीन नहीं है । भले ही राह की धूल या रोडा ही क्यों न हो। हर चीज का कोई न कोई उपयोग है । सर्वाधिक गुण मनुष्य में है। जब उसे आभास हो जाये की वह कितनी अदभुत शक्तियों का स्वामी है  तो वह ऐसे गर्व की अनुभूति से भर उठेगा की निराशा सदा के लिए उसके जीवन से पलायन कर जायेगी । ईश्वर के न्याय के प्रति  विश्वास होना ही जीवन में हर्ष भाव का मुख्य उतपर

Sunday 20 August 2017

आनंद की खोज

आंतरिक आनंद एक ऐसा एहसास है जिसका हममे से ज्यादातर लोगो को एहसास नहीं होता । इसका कारण है की हम बाहरी चीजो में बसे हुए है। हम आनंद प्रदान करने वाली चीजो को आकार में पहचानते है, जबकि आनंद का अस्तित्व अनाकार में है। सौंदर्य को महसूस करने की क्षमता, अपने आप में मगन रहने की आदत , साधारण वस्तुओ की तारीफ़ करना, लोगो से स्नेह रखना और उन्हें प्यार करना , उनसे सम्बन्ध बनाना , इन पीछे जो चीज है, वह है संतोष का एहसास, यह एहसास अनाकार ही तो है और इसलिए अदृश्य है। संतो, दार्शनिको और कवियों पर नजर डाले तो यह पता चलता है की वे जीवन भर सच्ची ख़ुशी की तलाश में रहते है। वे महसूस करते है की जिसे वे खोज रहे थे वे दिखने में असाधारण , लेकिन नगण्य लगने वाली वस्तुए है। ऐसी जिसे हम जीवनभर आसपास देखते रहते है। यह और बात है की उसे महसूस नहीं कर पाते। ख़ुशी के लिए छोटी चीज काफी है। बस इसे पाने के लिए शांत रहना सीखिये। 

दरअसल छोटी छोटी चीजे हमारे अंतर्मन को विस्तार देती है। छोटी खुशियो के लिए जिस आत्मसजगता की जरुरत होती है। उसके लिए अंदर से शांत होना अनिवार्य है। सजग रहने से आंतरिक ख़ुशी के दरवाजे खुलते है। मन जितना शांत होता है उतना ही आनंद महसूस होता है। आप समर्पित होकर कर्म में जुटे रहे तो हर चीज की जीवन्तता को अपने एहसास में पायेगे। तब आप खुद को उस आनंद का हिस्सा पायेगे जो सृष्टी और प्रकृति के कण कण में विद्यमान है। एक बात समझने योग्य है की सुख और आनंद में अंतर है। सुख भौतिक वस्तुओ से सम्बन्धित है और आनंद ऐसी मन की दिशा है जिसमे भौतिक वस्तुओं के अभाव में व्यक्ति अंतर्मन में प्रसन्नता महसूस करता है।

Friday 18 August 2017

किसके लिए जिए

यह बड़ा प्रश्न है की किसके लिए जिए।सभी की भिन्न भिन्न प्राथमिकताएं होती है। उन्हें प्राप्त करने का ढंग भी अलग अलग होता है। मनुष्य अपने बारे में सबसे पहले सोचता है, उसके बाद परिवार के प्रति। ऐसे भी लोग है जो परिवार के मोह में अपने हित भी उपेक्षा में कर देते है। जितना अधिक उदार मनुष्य का मन होता है उतने ही लोग उसकी चिंता के दायरे में सिमट जाते है। थोड़े से लोग ऐसे भी हुए, जिन्होंने किसी भेदभाव के बगैर पुरे समाज की चिंता की। वे आज महापुरुष के रूप में पूजनीय है। अपने और अपनों के हितों से ऊपर उठकर व्यापक द्रष्टी धारण कर पाना दुष्कर कार्य है।इसके लिए अपने आप से लड़ना पड़ता है। मनुष्य वास्तव में एक अत्यंत निरीह प्राणी है। इसे पांच शक्तिशाली योद्धाओ ने घेर रखा है। यह योद्धा है-काम , क्रोध,मोह, लोभ और अहंकार। मनुष्य का इनसे बड़ा शत्रु और कोई नहीं। यह इतने प्रबल है की मनुष्य की इन्द्रियों को जीतकर अपने वश में कर लेते है। जब इन्द्रियों पर इन शत्रु योद्धाओ का आधिपत्य हो जाता है तब मनुष्य के मूल उद्देश्य को खो देता है।  विवेक, बुद्धि,संयम ,संतोष, दया और परोपकार जैसे गुण पराजित हो जाते है, जितना शक्तिशाली इनका प्रभाव होता है, मनुष्य उतना ही निर्बल हो जाता है। 

  1. कई बार मनुष्य अपनों के हितों को दांव पर लगा देता है। अपने ही परिवार का शत्रु बन जाता है। ज्ञान, धर्म, नैतिकता मूल्य आदि इसके लिए अर्थहीन हो जाते है। ऐसे लोगो के सामने धर्म,समाज की जितनी भी बातें की जाये वे बेकार हो जाती है। समाज में बदलाव की बातें निरंतर होती रहती है। इसके बावजूद समाज में गिरावट रुक नहीं रही। इसका कारण यही है की बातें पत्थरों से की जा रही है। पांच विकारों ने मनुष्य की दसो इन्द्रियों को जीतकर उसे पत्थर जैसा संवेदनहीन बना दिया है। ये पांच योद्धा समाज में व्याप्त वातावरण के कारण शक्तिशाली हो गए है और मनुष्य की इन्द्रियों को जीतने में सफल रहे है। समाज में कैसे स्त्रियों और पुरुषों की नैतिकता का पतन हो रहा है। समाज से उन तत्वों को हटाना पड़ेगा जिनसे काम, क्रोध,लोभ ,मोह,और अहंकार को ताकत मिलती है। यह मनुष्य के जीवन का उद्देश्य हो की उसे विकारों का गुलाम बनकर नहीं रहना है। उसका संकल्प हो की उसकी इंद्रिया मुक्त रहकर उसके जीवन की सहायक बने।

Monday 14 August 2017

चरित्र

जीवन यानी संघर्ष यानी ताकत यानी मनोबल। मनोबल से ही व्यक्ति स्वयं को बनाये रख सकता है, अन्यथा करोडो की भीड़ में अलग पहचान नहीं बन सकती। सभी अपनी अपनी पहचान के लिए दौड़ रहे है, चिल्ला रहे है। कोई पैसे से , कोई अपनी सुंदरता से , कोई विद्वता से ,कोई व्यवहार से अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए प्रयास कर रहा है , पर हम कितना भ्रम पालते है। पहचान चरित्र के बगैर नहीं बनती है। बाकी सब अस्थायी है। यह सही है की शक्ति और सौंदर्य का योग ही हमारा व्यक्तित्व है, पर शक्ति और सौंदर्य आंतरिक भी होते है और बाहरी भी होते है। धर्म का काम है आंतरिक व्यक्तित्व का विकास। इसके लिए मस्तिष्क और ह्रदय को सुंदर बनाना होता है। जो सदविचार और सदाचार के विकास से ही संभव है। उत्कृष्ट चिंतन से जीवन जीने का सलीका आता है। इससे अंतर्मन में संतोष और बाहर सम्मान पूर्ण वातावरण का सृजन होता है। ऐसे चरित्र और नैतिकता सम्पन्न व्यक्तियों के सामने इंद्र और कुबेर का वैभव भी समर्पित हो जाता है। चरित्र एक साधना है तपास्या है। जिस प्रकार अहंकार और अहम का पेट बड़ा होता है उसे रोज कुछ न कुछ चाहिए। उसी प्रकार चरित्र को रोज संरक्षण चाहिए और यह सब दृढ़ मनोबल से ही प्राप्त किया जा सकता है। समाज में संयमित व्यक्ति ही सम्माननीय है और वही स्वीकार्य भी। संयम ही जीवन है। अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए संयम प्रधान जीवनशैली का विकास जरुरी है। आशक्ति पर विजय प्राप्त किये बिना संयम का विकास नहीं हो सकता है। मानसिक और सामाजिक शांति व् सुव्यवस्था के लिए अनाशक्ति से जीवन में स्वार्थ की भावना उत्पन्न हो जाती है । अंहकार का भाव बढ़ जाता है। मनाव मन को उससे मुक्ति दिलाने के लिए आद्यात्म का आश्रय चाहिए। यह संतुलन की प्रक्रिया है। सच तो यह है की चरित्र निर्माण से ही जहाँ आपके व्यक्त्तिव का निर्माण होता है,वहीँ अच्छे चरित्र वाले लोगो से ही देश का निर्माण होता हैं।

Sunday 13 August 2017

अहिंसा

अहिंसा का अर्थ हम प्राय: हिंसा के विलोम शब्द के रूप में लेते है, जिसका अर्थ जीव हत्या न करना और मांसाहार से दूर रहना आदि। यह बात ठीक भी जान पड़ती है मांसाहार जीवहत्या के बगैर संभव नहीं है। इसलिए दोनों ही हिंसा के category में आते है। अब सवाल उठता है की अहिंसा को क्यों यूँ एक सीमित दायरे में बाँधा जा सकता है? जी नहीं , अहिंसा का क्षेत्र बहुत बड़ा है और अहिंसा का संक्षेप में अर्थ है -समस्त हिंसक वृत्तियों का त्याग। कैसी है ये हिंसक वृतियां , इन्हे जानना होगा, समझना होगा। तभी हम उनसे मुक्ति पा सकते है । दुसरो को सताना, दुःख पहुचाना निश्चित रूप से हिंसा है। किन्तु क्या स्वयं को सातना हिंसा नहीं है?  आदमी तीन तरह के होते है पहला परपीड़क यानी ऐसे लोग जो दुसरो को सताकर सुकून का अनुभव करते है। दूसरा स्वपीड़क यानी आत्मपीडक ऐसे लोग दुसरो को न सताकर स्वयं को सताकर सुख का अनुभव करते है। ऐसे लोग धर्म के विश्वास में होकर अत्यधिक व्रत उपवास , काटो की सेज पर लेटना आदि से लेकर आत्महत्या तक कर डालने से ऐसे लोग नहीं चूकते । मेरी राय में अहिंसक वे है , जो इन दोनों के पार है। जो इन दोनों वृत्तियों का अतिक्रमण कर चूका है। यानी जो दुसरो को सताता नहीं और न ही स्वयं को सताता है, जो स्वस्थ व प्रसन्न भाव से संतोष पूर्वक जीता है। इसके अतिरिक्त कड़वे वचनो द्वारा हिंसा एक खतरनाक हिंसा है। कारण यह है की कड़वे वचन हमे यूँ ही चोट पहुचाते है की जीवन भर नहीं भूलते। मन में किया गया किसी के प्रति बुरा विचार भी हिंसा है। यानी नकारत्मक विचार उठा की हिंसा हुई । कारण यह की मन में उठे विचार ही भविष्य में उठने वाले कृत्य की आधारशिला रखते है। हम पहले विचार करते है । शीघ्र ही भविष्य में वही विचार नए कर्म की पर

मृत्यु

जीवन के कार्यकलापो में हलचल और चकाचौंध यानि ध्वनि और प्रकाश का समावेश है। ये दोनों भौतिक अस्मिताएं है और इनका स्वरूप अस्थायी है। अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए इन्हें source चाहिए । दूसरे छोर पर मृत्यु ,शांति और अंधकार है।इनका अस्तित्व किसी के बुते पर नहीं टीका रहता, क्योकि इनकी प्रकृति दैविक है। नवजात शिशु के आगमन और हर्षोल्लास में मनुष्य तनिक भी यह विचार नहीं करता की जो आया है उसे जाना है। जीवन जन्म और मरण की छोटी सी यात्रा का दूसरा नाम है। मृत्यु से ज्यादा निश्चित कुछ भी नहीं है। छोटी सी सोच के लिए  मनुष्य  अस्थिर साधन जुटाने में  अपने परम target से भटक जाता है।इस प्रक्रिया में वह नकारत्मक, ईर्ष्या, लालच से ग्रस्त रहता है। आये दिन होती मौतों के सन्देश नहीं पढता है । मृत्यु दुनिया का सबसे बड़ा मौन शिक्षक है हमे कल मरना है इस दृष्टी से हम जीना सीख ले, तो जीवन सार्थक हो जायेगा । मृत्यु के सत्य को समझने वाला सत्कार्य में निरत रहता है। मृत्यु के उपरान्त सत्कर्मो की पूँजी साथ ले जाता है । वह जीवन पूरी तरह जीता है और कभी भी मरने के लिए तैयार रहता है वह जानता है की दुसरो की मौत पर पुष्प अर्पित करने से अधिक important है की उसे जीते जी पुष्प भेट करना है। 

मनुष्य को जीवन का विलोम नहीं , बल्कि अंग समझने से मृत्यु का भय नहीं सताता। जीवन की सबसे बड़ा नुकसान मृत्यु नहीं, बल्कि जीते जी हौसलो का खत्म हो जाना है। मौत से वे भयभीत होते है , जो जिंदगी से दूर भागते है । कहा गया है मृत्यु तो शान्तिप्रद होती है किन्तु इसका विचार मनुष्य को विचलित करता है। मृत्यु, आत्मा,परमात्मा का मिलान पल भर का है। जीवन और मृत्यु एक सिक्के के दो पहलु है । हमे केवल every moment का सदुपयोग करते रहना है। 

समय प्रबंधन

अनेक लोग है जो समय प्रबंधन के महत्व को समझते नहीं है। समय प्रबंधन को समझने वाले लोग बड़े चुस्त, फुर्तीले, और दृढ निश्चयी होते है। ऐसे लोग एक काम को पूरा करके तत्काल दूसरा कार्य हाथ में ले लेते है और उसे पूरा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते है। भविष्य ऐसे ही लोगो का होता हैं। यदि आप कार्य को तत्काल संपन्न करते है तो आप अनेक उलझनों से बच जाते  है । काम को तुरत फुरत संपन्न कर डालने की आदत से हमारी शक्तियां और योग्यताए संघठित रहती है।उनमे कभी भी बिखराव की संभावना नहीं रहती है  । काम को टाल देने की आदत से आगे चलकर कई जटिल समस्याएं उत्पन्न हो जाती है।अक्सर लोग काम को शुरू करने से पहले ही डर जाते है। उन्हें  यह शंका हरदम घेरे रहती है की वे यह काम पूरा कर पायेगे की नहीं। ऐसे लोग हरदम काम का बोझ लादे रहते है। किसी भी काम को नियत समयावधि में पूरा करने के लिए शुरू शुरू में आलस्य आता  है।यह बहुत स्वाभाविक है ऐसा इसलिए क्योकि आप अपनी एक पुरानी बुरी आदत बदल रहे होते है। मगर काम को शुरू कर दे तो यह आलस्य धीरे धीरे दूर होता जाता है। यदि कई काम है तो उनकी प्राथमिकता के आधार पर एक सूची बना ले। कम समय लगने वाले काम को सबसे निपटा ले। जो काम अन्य सभी से  भारी है उसके लिए एक ख़ास समय तय करे। कामो को क्रमबद्ध और व्यवस्थित ढंग से किया जाये तो चौबीस घंटे कम नहीं होते है। हमे इस बात पर विचार करना चाहिए की जीवन में सफल लोगो ने इन चौबीस घंटो का सही सही उपयोग कैसे किया। एक बार यदि आपने समय प्रबंधन की आदत डाल ली तो छोटा हो या बड़ा हर काम तय समय सीमा में पूरा हो जायेगा और दूसरा दिन आपके नए कामो के लिए पूरी तरह से खाली रहेगा । जब आप किसी काम को पूरा कर ले तो खुद ही संतोष करे। वस्तुतः टाल मटोल की आदत आपके जीवन का बहुत समय बर्बाद कर देती है। इस आदत के परिणाम स्वरुप हमारी आंतरिक शक्ति धीरे धीरे कम होने लगती है।

Saturday 12 August 2017

आलोचना

आलोचना से कोई भी नहीं बच सकता । जो मनुष्य जितना बड़ा होता है, उसकी आलोचनाये भी उतनी ही बड़ी होती है। इसलिए आलोचना से घबराकर धैर्य नहीं खोना चाहिए । आलोचना दो प्रकार की होती है-रचनात्मक और विध्वंसात्मक। हर एक व्यक्ति को जीवन में किसी न किसी समय आलोचना का शिकार होना पड़ता है । आलोचक को कभी शत्रुता नहीं माननी चाहिए की वह बदनाम करने के लिए आरोप लगा रहा है।ऐसा सदैव नहीं रहता। भ्रम भी कारण हो सकता है। घटना का सही उद्देश्य सही रूप से न समझ पाने पर लोग मोटा अनुमान यही लगा लेते है की शत्रुतावश ऐसा कहा जा रहा है। निंदा करना वालो का इसमे घाटा ही रहता है। यदि उसकी बात सत्य है तो भी लोग चौकान्ने हो जाते है की कही हमारा भेद इसके हाथ हो नहीं लग गया है जिसे यह हर जगह बकता फिरे। झूठी निन्दा बड़ी बुरी मानी जाती है। निंदा सुनकर क्रोध आना और बुरा लगना स्वाभाविक है क्योकि इससे स्वयं के स्वाभिमान को चोट लगती है पर समझदार लोगो के लिए उचित है की ऐसे अवसरों पर धीरज से काम ले। आवेश में आकर विवाद न खड़ा करे। यह देखे की ऐसा अनुमान लगाने का अवसर उसे किस घटना या कारण से मिला। यदि उसमे व्यवहार कुशलता संबंधी भूल हो रही हो तो उससे बचकर रहे। यदि बात सर्वथा मनगढ़ंत सुनी सनाई है तो अवसर पाकर यह उन्ही से पूछना चाहिए की उसने इस प्रकार ग़लतफ़हमी क्यों उत्पन्न की  एक बार कारण तो पूछ लिया होता इतनी छोटी से बात के लिए उसका मुख भविष्य के लिए बंद हो जायेगा और यही कही बात सत्य है तो आत्म सुधार की बात सोचनी चाहिए। 

आलोचना की गई बातो को सत्यता की कसौटी पर कसे। प्राय: बातें असत्य होती है। कभी कभी आलोचना को accept कर लेना भी उचित होता है। यदि सत्य है तो accept करके सुधार कर लेना चाहिए। निरर्थक आलोचना को importance न दे और आगे बढ़ते रहे। आलोचना की विश्वासता को जाँचे। अनेक बार लोग केवल ईर्ष्या वश या लड़ाकर तमाशा देखने के लिए ही आलोचना करते है, इस पर कतई ध्यान न दे। आलोचना से स्वयं को सुधार करने का सुअवसर मिलता है। अपने मित्रो को मन की स्थिति का पता चलता है।

Friday 11 August 2017

प्रसन्न्ता

यह अनुमान सही नहीं है की जो सुखी और साधन संपन्न होता है , वह प्रसन्न रहता है। और यह भी जरुरी नहीं है की जो प्रसन्न रहता है वही सुखी और साधन संपन्न है। प्रसन्न्ता विशेष रूप से ऐसी मनोदशा है जो पूर्णतया आंतरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है । गरीबी में भी मुस्कराने और कठिनाइयों के बीच भी जो खोलकर हँसने वाले अनेक व्यक्ति देखे जा सकते है। इसके विपरीत ऐसे भी अनेक लोग है जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन सम्पन्नता है, पर उनकी मुखाकृति तनी रहती है। क्रुद्ध , चिंतित, असंतुष्ट रहना मानसिक दुर्बलता मात्र है जो अंत: करण की दृष्टी से पिछड़े हुए लोगो में पाई जाती है । परिस्थितिया नहीं , मनोभूमि का पिछड़ापन ही इसका कारण है। संतुलित दृष्टीकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हँसते हँसते रहते है। वे जानते है की मानव जीवन सुविधाओं असुविधाओं अनुकलता और प्रतिकूलता के ताने बाने से बुना गया है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा जिसे केवल सुविधाओ और अनुकूलताएं ही मिली हो और कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। इसके प्रतिकूल जिसने अनुकूलताओं पर विचार करना आरंभ किया और अपनी तुलना पिछड़े हुए लोगों के साथ करना शुरू किया उसे लगेगा की हम करोड़ो से अच्छे है। 

हमारे पास जो प्रसन्न्ता है, वह एक वरदान है हँसने हँसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा , किन्तु जिन्हें अशुभ चिंतन की आदत है , दुसरो के दोष , दुर्गुणों और अपने अभाव , अवरोध खोजने की आदत है, ऐसे लोग परेशान रहते हैं वे असमंजस और दुखी रहते है रोष उनकी वाणी से और असंतोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा। ऐसे व्यक्ति स्वयं दुखी रहते है। हमे अंसन्तुस्ट और कुद्ध नहीं रहना चाहिए । इससे मानसिक विकृतिया उत्पन्न होती है और बढ़ती  चली जाती है। आग जहाँ रहेगी , वही जलायेगी । असंतोष जहाँ रहेगा, वहीँ दूरियां पैदा करेगा और उससे सारा मानसिक ढांचा लड़खड़ाने लगेगा। 

सद्गगति

हमारे कर्म ही हमे गति देते है। यदि हम अच्छे कर्म करते है तो सदगति को प्राप्त करते है, गलत कर्म से दुर्गति मिलती है। कर्म छोटा  या बड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म ही मनुष्य को छोटा बड़ा बनाते है। हम जैसे कर्म करते है, उसका वैसा ही फल हमे मिलता है। हमारे द्वारा किये गए कर्म ही हमारे पाप और पुण्य तय करते है। हमारे जीवन में कुछ अच्छा या बुरा होता है तो उनका सीधा सम्बन्ध हमारे कर्मो से होता है। कहा गया है की जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते । हमे सिर्फ काटे ही मिलेगे। एक डाकू या लुटेरा भी यही सोचता है की वह अच्छे कर्म कर रहा है । लूटपाट करके ही सही , अपने परिवार का पेट तो भर रहा है, लेकिन जब साधुओं ने एक डाकू से पूछा की क्या इस पाप में तेरा परिवार भी भागी बनेगा तो वह असमंजस में पड़ गया और भागा भागा अपने परिवार के पास गया । उसने परिवार के सदस्यों से यही प्रश्न किया तो सभी ने एक स्वर में कह दिया की तुम्हारे पापो में हम भागीदार नहीं है। तब जाकर उसकी आँखे खुली । हमारे कर्मो में इतनी ताकत होती है की डाकू तक अपने कर्म सुधारे तो वे महर्षि बन सकते है। 

दुनिया हमे हमारे काम से ही पहचानती है। तभी कहा गया है की अपने कर्मो की गति सुधारो । कर्म सुधर गए तो जीवन सुधर गया । अच्छे कर्मो से मनुष्य जीते जी तो याद किये ही जाते है, मृत्यु के बाद भी उनका नाम अमर हो जाता है । हमारे कर्म में हमेशा कोई न कोई उद्देश्य छिपा होना चाहिए । उद्देश्य के बगैर कर्म बहुत असरकारक नहीं होता । एक बुजुर्ग व्यक्ति ने यात्रा पर जाने से पहले अपनी बहुओ को कुछ बीज दिए और कहा की इन्हे संभलकर रखना। जब मैं लौटूगा तो इन्हे वापस ले लूंगा। पहली बहू ने बीज बक्से में संभलकर रख दिए, लेकिन कुछ समय बाद ही वे सड़ गए। दूसरी बहू ने उन बीजो को बो दिया तो कुछ दिनों बाद वे अंकुरित हो गए और पौधे में तब्दील हो गए । बुजुर्ग जब यात्रा से लौटे और उन्होंने आँगन में नए पौधे देखे तो वे अपनी छोटी बहु से बहुत खुश हुए। हमारे कर्म हमारी सोच पर निर्भर करते है। यानि हम जैसा सोचते है वैसे ही कर्म करते है और उसी के अनुरूप हमे फल  भी मिलता है। अपने कर्मो के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेदार होता है। गीता में भी कहा गया है की फल से ज्यादा कर्म को ही महत्ता दी जानी चाहिए।

Thursday 10 August 2017

मनुष्य और प्रकृति

ईश्वर ने हर जीव को जो कुछ दिया है , उसके कर्मो और उसकी योग्यता के अनुसार दिया है। मनुष्य इसके बाद भी संतुष्ट नहीं है और ईश्वर की सत्ता और व्यवस्था में किसी न किसी भाँति दखल देता रहता है । मनुष्य की सोच है की वह इससे उत्तम परिस्थितिया उत्पन्न कर सकता है। उसने पहाड़ , जंगल , पेड़ काट डाले नदियो के रुख मोड़ दिए और वह खनिजो का दोहन कर रहा है। वातावरण पर नियंत्रण करना चाहता है और अपनी गढी हुई परिभाषा के अनुरूप सुख प्राप्त करना चाहता है। वह परमात्मा के प्रति एक तरह का अविश्वास है । सृष्टि में जो कुछ है , प्रचुरता में है और जीव के उपभोग के लिए है। सामान्य उपभोग से न तो फल , वनस्पतियो और खाद्यान समाप्त होने वाले है और न जल। वायु भी कभी चुकने वाली नहीं है। मनुष्य के अविवेक और अधीरता ने इन पर भी संकट खड़ा कर दिया है । मनुष्य अपने प्रारब्ध से आधिक पाना चाहता है- वह भी ईश्वरीय व्यवस्था को भंग करके । वह कितना भी चातुर्य प्रदर्शित कर ले ईश्वर की उच्चता को नहीं पा सकता है इस कारण अंततः दुखी होता है। एक बार एक कुशल मूर्तिकार ने अपने जैसी कई मूर्तियां बना ली और उनमे  छिपकर बैठ गया ताकि यमराज के दूत उसे लेने आये तो पहचान न सके । वक़्त आने पर जब दूत आये तो उसे पहचान न सके और यमराज को जाकर सारी बात बताई। यमराज ने एक युक्ति बता कर अपने दूत पुनः भेजे। दूतों ने आकर कहा की वाह तुम तो बड़े कुशल मूर्तिकार हो, किन्तु एक गलती कर आये हो। मूर्तिकार का अहं जाग गया और वह तुरंत दहाड़ कर बोला की मैं कोई गलती कर ही नहीं सकता । वास्तव में यह अहंकार ही उसकी सबसे बड़ी गलती थी जिससे यमराज के दूतों ने उसे पहचान लिया। आज मनुष्य के साथ भी यही हो रहा है । अपने अहंकार के चलते वह विध्वंश की ओर बढ़ रहा है। यदि पृथ्वी पर पेड़ो , पहाड़ो , नदियो की आवश्यकता न होती तो ईश्वर उनकी रचना क्यों करता। मौसम का बदलना , दिन और रात का होना, जन्म और मृत्यु सभी किसी विधान के तहत है । इसमें सृष्टी का संतुलन और उपादेयता निहित है। मनुष्य को बुद्धि आत्मिक विकास और आवागमन के फेर से मुक्ति के लिए मिली , किन्तु उसका उपयोग वह सृष्टी के नियमो से मुक्त होने के लिए कर रहा है। 

मुस्कान का प्रभाव

संस्था की वार्षिक बैठक थी। किसी में target पूरा करने की ख़ुशी थी, तो किसी में कार्य पूरा न करने की उदासी । खचाखच भरे हाल में जैसे ही उस व्यक्ति का प्रवेश हुआ, कई जोड़ी आँखे उसकी ओर उठ गई। परिचित अपरिचित सभी के साथ मृदुल मुस्कान लिए बड़ी आत्मीयता और आत्मविश्वास के साथ वह मिल रहा था। यह तो बाद में पता चला की वह अपने target तक पहुचने में नाकाम रहा है। मुस्कुराहट में बड़ी शक्ति होती है । मुस्कराने की क्षमता वही रखता है , जिसकी सोच सकारात्मक होती है और संघर्षो को पार करने की काबिलियत रखता है। हमारे व्यक्त्तिव का सबसे अच्छा आभूषण हमारी मुस्कुराहट है। दिल जीतने से लेकर जंग जीतने तक में यह कारगर है। कहा गया है, जैसी हमारी सोच होगी , वैसा ही व्यवहार परिलक्षित होगा। असफल होने का डर या विफलता के बाद की निराशा से उबर कर सहज हो जाना आसान नहीं तो असंभव भी नहीं । सकारात्मक विचार हमे एक दूसरे के करीब लाता है और कई लोग सही दिशा निर्देश भी देते है , जिन्हें अपनाकर हम target पा सकते है। चेहरे की मुस्कराहट के साथ व्यवहार में गर्मजोशी हो, तो ऐसी मुलाकात अविस्मरणीय बन जाती है। सकारत्मक सोच हमे लोकहित के लिए प्रेरित करती है। अगर हम अच्छे है तो हमे दूसरों की अच्छाई भी दिखेगी , भले ही सामने वाले में असंख्य बुराइया हो। विचारों में चाहे विरोधाभास हो या आस्था में चाहे विभिन्नताये , पर अपनी पसंद के आधार पर दुसरो की आलोचना नहीं करनी चाहिए । अपना ढंग किसी को बुरा न लगे और किसी के मार्ग का अवरोध न बने। मनोविकार से बचने के लिए सृजनात्मक और सकारात्मक सोच अपनानी होगी। जरुरी है दुःख को  क्षण भर मानकर मुस्कराते हुए उसका सामना करे , सुख खुद ब खुद  दरवाजे पर दस्तक देगा।

Wednesday 9 August 2017

सदबुद्धि

समस्त दुखो की जननी कुबुद्धि है और समस्त सुखो और शांति की जननी सदबुद्धि है। कुबुद्धि हमे आनंद से वंचित करके नाना प्रकार के क्लेश, भय और शोक संतापो में फंसा देती है। जब तक यह कुबुद्धि रहती है तब तक कितनी ही सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी चैन नहीं मिलता । एक चिंता दूर नहीं हो पाती की दूसरी सामने आ खड़ी होती है । इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए सदबुद्धि जरुरी है । इसके बिना शांति मिलना किसी भी प्रकार संभव नहीं। संसार में जितने भी दुःख है, कुबुद्धि के कारण है। लड़ाई -झगड़ा , आलस्य , दरिद्रता , व्यसन , व्यभिचार , कुसंग आदि के पीछे मनुष्य की दुर्बुद्धि ही काम करती है। इन्ही कारणों से रोग , अभाव , चिंता, कलह आदि का भी प्रादुर्भाव होता है और नाना प्रकार की पीड़ाएँ सहनी पड़ती है । कर्म का फल निश्चित है, ख़राब कर्म का फल ख़राब ही होता है। कुबुद्धि से बुरे विचार बनते है। उपासना के फलस्वरूप मस्तिष्क में सदविचार और ह्रदय में सदभाव उत्पन्न हो जाते है, जिसके कारण मनुष्य का जीवनक्रम ही बदल जाता है। अंगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गर्म हो जाती है और उसमे बैठे हुए सभी मनुष्य सर्दी से मुक्त हो जाते है। उसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से सदबुद्धि की शरण लेते है तो उन्हें स्वयं तो शांति मिलती ही है, साथ ही उनकी साधना का सूक्षम प्रभाव घर पर पड़ता है और चिंताजनक मनोविकारों का शमन होने व सुमति , एकता , प्रेम, अनुशासन और सदभाव की परिवार में वृद्धि होती है। साधना निर्बल हो तो प्रगति धीरे धीरे होती है, पर होती अवश्य है। सदबुद्धि एक शक्ति है जो जीवनक्रम को बदलती है। उस परिवर्तन के साथ साथ मनुष्य की परिस्थितिया भी बदलती है। सदबुद्धि आत्म-निरीक्षण , आत्म शुद्धि , आत्म उन्नति और आत्म साक्षत्कार करने की शक्ति उत्पन्न कर देती है। जैसे ही मनुष्य के अंत:करण में सदबुद्धि का पदार्पण होता है वैसे ही वह अपनी कठिनाइयों का दोष दुसरो को देना छोड़कर आत्म निरीक्षण आरम्भ कर देता है। अपने अंदर जो त्रुटिया है उन्हें तलाशता और हटाता है। ऐसी गतिविधि ग्रहण करता है जो अपने और दुसरो के कष्ट बढ़ाने में नहीं , बल्कि सुख सुविधा के उत्कर्ष में सहायक हो।

जीवन-पद्धति

किसी भी कार्य की सफलता में सबसे पहले सम्बंधित कार्य की रूप-रेखा बनाई जाती है। उसमे कार्य की प्रकृति , उसमे लगने वाला समय , धन, सामर्थ्य का आकलन शामिल होता है। इससे कार्य में सफलता की सुनिश्चितता बढ़ जाती है। अक्सर देखने में आता है की सड़क पुल ,सिंचाई परियोजना आदि के निर्माण में पहले हर पहलुओं का विस्तृत आकलन किया जाता है , जिसे प्रोजेक्ट रिपोर्ट कहते है । प्रोजेक्ट रिपोर्ट के गहन अध्य्यन के बाद उस पर कार्य शुरू होता है, लेकिन प्राय: लोग निजी जीवन में कोई कार्य किसी ठोस योजना के बगैर शुरू कर देते है और असफल होने पर खुद निराश तो होते ही है, साथ ही भाग्य और भगवान्  को दोष देते है। प्रयास करने से भी कोई कार्य नहीं पूर्ण हो पाता या सफलता नहीं मिलती तो कही न कही स्वयं का दोष है   योजनाबद्ध कार्य का example मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा कदम कदम पर प्रस्तुत किया गया । लंका पर आक्रमण के पहले वहा की सारी स्थिति का अध्य्यन करने के लिए श्री राम हनुमान जी को लंका भेजते है। लंका के भौगौलिक, सामाजिक ,सामरिक आदि  क्षमता का आकलन कर हनुमान जी विस्तृत जानकारी श्री राम को देते है और जब श्री राम खुद लंका जाने की बात आती है और बीच में समुद्र पर मार्ग बनाने का question उठता है तब उनके अनुज लक्षमण जी तत्काल ही उस कार्य को अंजाम देना चाहते है और पुल बनाने का उद्यम करने लगते है, लेकिन श्री राम ने उन्हें किसी तरह की जल्दबाजी से रोक दिया। स्वयं श्री राम समुद्र तट के किनारे तीन दिनों तक बैठे रहे । इन तीन दिनों में श्री राम का समुद्र पर पुल बनाने की कार्ययोजना को अंजाम देना मुख्य target था ।किसी कार्य के शुरू करने में जब व्यक्ति एकाग्र मन से किसी कार्य का चिंतन करता है तो चिंतन में ही अनेक रास्ते निकलते है। जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हुए सब में वैज्ञानिक ने पहले गहरा चिंतन किया , उसके बाद प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की। ऐसा माना जाता है की ठंडे मन से किसी subject पर सोचने से सरल उपाय निकल आते है। जबकि प्राय: व्यक्ति जल्दबाज़ी और शॉर्टकट रास्ता तलाशता है। इसी तरह अध्यात्म के field में भी गहरे चिंतन मनन को importance दिया गया है। 

Monday 7 August 2017

जीवन में सफल होने के 28 मंत्र

1 किसी को कोई वस्तु बहुत ही सोच समझकर देनी चाहिए चाहे वह कोई भी चीज हो। 2 कोई भी निर्णय लेने से पहले कई लोगो से राय लेनी चाहिए और फिर कोई कदम उठाना चाहिए। 3 छोटी से छोटी बात पर गंभीरता से विचार करने के बाद ही निर्णय ले। 4 सदैव सच बोले और कुछ भी कहने से पहले उसे दो तीन बार समझे फिर बोले। 5 जीवन में बहुत से मोड़ आते है और उसे संभलकर मुड़े। 6 present टाइम में भ्रष्टाचार,चोरी आदि कई अपराध बढ़ रहे है जरा संभलकर अनजान व्यक्ति को बिना समझे कोई महत्वपूर्ण या पारिवारिक बातो का उल्लेख न करे। 7 कई समस्याएं हमारे जीवन में ऐसे मोड़ ला देती है तब हमे निर्णय करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। 8 कोई कार्य करने से पहले लोगो से राय लेनी चाहिए तब कार्य करे। 9 जीवन में जितना हो सके उतना ही कम और उचित बातें करे चाहे वह कोई भी हो। 10 जल्दबाजी में या अचानक किसी से कोई कार्य करने को न कहे। 11 जीवन में किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं रखनी चाहिए। 12 संसार में बहुत से मनोरंजक वस्तुएं है जिनकी तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए। 13 किसी को कुछ भी देने से पहले कोई सबूत या गवाह होना चाहिए। 14 जीवन में ऐसे कार्य करने चाहिए जिनके लिए पछतावा न हो। 15 गलत कार्यो से सदा दूर रहना चाहिए। 16 हर समय चिंतन नहीं करना चाहिए कुछ समय अकेले में किये हुए कार्यो पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। 17 मन को सदैव शांत करने का प्रयास करो। 18 ऊँची आवाज में किसी से बात नहीं करनी चाहिये और अधिक बोलना भी नहीं चाहिए । 19 किसी के विषय में गलत न बोले सोच समझकर उसके विषय में बोले। 20 बिना मेहनत के सफलता को पाने की कोशिश न करे। 21 अग्रिम कार्य करने से पहले स्वयं में सोच समझकर कार्य करे वरन् कई समस्याऐ और पछतावा के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। 22मनुष्य अपने तरीके से जिंदगी जीना चाहता है इसलिए किसी के तौर तरीको से नाराज नहीं होना चाहिए न ही उससे। 23 कुछ भी पॉजिटिव करने के लिए अपने अंदर विश्वास जगाना होगा। अगर आप ज्यादा positive रहते है तो परफॉर्म भी ज्यादा बेहतर करेगे। 24 सफलता प्राप्त करने में विपरीत result भी आ सकते है हमेशा दिमाग में रखना चाहिए की मैं गलत हो सकता हूँ यह बहुत बड़ा गुण है। 25 सबके साथ अच्छे संबध रखो। 26 असफलता को भी एन्जॉय करो । कभी कभी बहुत difficult परिश्रम के बाद भी असफलता ही मिलती है इसके पीछे एकमात्र कारण परिस्थियां होती है। 27 difficult परिश्रम और अनुशासन सफलता की कुंजी है। 28 जो मनुष्य स्वयं को समय के अनुसार नहीं परिवर्तित करता है वह मनुष्य नहीं जानवर के सामान है । 

उनींदी हालत में हौसला

बॉस अपने केबिन में उनींदे थे। सब यही सोच रहे थे यह बढ़ते तापमान का असर है। आधे घंटे बाद ही उन्होंने एक बैठक बुलाई और उस मुद्दे पर फैसला लिया जिस पर दो सप्ताह से अधिक टालमटोल की स्थिती बनी हुई थी। उनींदीपन में तय की गई बात बेहतर रिजल्ट देती है। इसे समझना टेढ़ी खीर था। समझ में तब आया जब उन्होंने लंबे समय तक अवचेतन मन पर कार्य करने के बाद पाया की उसे प्रभावित करने का सबसे अच्छा तरीका है उनीदीं अवस्था में जाना। फिर चिंतन करना और निष्कर्ष बनाना। उनीदीं अवस्था का मतलब है  वहाँ जाना जहाँ आपके प्रयास न्यूनतम हो जाये। उनीदीं अवस्था में आपके प्रयास न्यूनतम हो जाते है।  दरअसल अवचेतन मन सबसे अधिक शक्तिशाली तब होता है जब हम सोने के ठीक पहले या जागने के ठीक बाद की अवस्था में होते है। यह अवस्था जब आती है उस समय अवचेतन मन तक आपकी इच्छा को पहुचने से रोकने वाले सारे नकारत्मक विचार ख़त्म हो जाते है। कोई बाधा नहीं होती । आप महज एक बार ही उनीदींपन में आकर यह लाभ नहीं उठा सकते ।इसे भी दुहराना होता है। फैसला लेने की क्षमता आने से लेकर किसी के फलित होने तक हो सकता है। की आपको बार बार यह तकनीक प्रयोग में लानी पड़ेगी। जब भी नकारत्मक आदत या सोच जोर मारे यह तकनीक आज़मा ले। हो सकता है हम इसके रिजल्ट को लेकर सकारत्मक विचार न रखते हो।

तन और मन की सेहत


हमारा तन और मन यह दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। मन का एक छोटा सा विचार भी बॉडी पर अपनी reaction छोड़ जाता है। जब मन में क्रोध आता है, तो उसका तत्काल प्रभाव शरीर पर पड़ता है। जब मन में करुणा जागती है तब भी उसका असर दिखाई देता है। मन जिस स्थिती में होता है, मस्तिष्क द्वारा हार्मोन का स्त्राव भी उसी के अनुरूप होता है। जब हमारा मन ठीक नहीं होता है तब हम नकारात्मक भावनाओ से बुरी तरह घिर जाते है। जिसका सीधा असर फिर हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। हम खुद को इतनी अच्छी तरह से जान ले की हमे अपने भीतर क्या है उसका सहज अहसास हो। अपने भीतर के अच्छे तत्वों को जानने से हमारे विचारों और भावनाओं की गुणवत्ता में गहरा परिवर्तन आता है। जो चुनौतियों के सामने हमे शान्त और प्रेम से रहने के लिए सक्षम बनाता है। इस प्रक्रिया को सरल बनाने में आध्यत्मिकता एक बड़ी भूमिका निभा सकती है। आद्यात्मिकता हमारे भीतर की दुनिया को जानने और उसमे उत्पन्न होने वाली अनेकानेक समस्याओं से निपटने की अद्वितीय कला है। मैं कौन और मेरा क्या , इस सार को समझाने वाला ज्ञान है अध्यात्म । इसमें हमे इस गहरे तथ्य की समझ प्राप्त होती है। की अपने विचारों और भावनाओं के लिए जिम्मेदार हम स्वयं न की और कोई । जिसने अपने आपको पहचान लिया ,वही परमात्मा को पा सकता है। जीवन तभी सफल है जब आप वही करते है जिसे करने में आपको आनंद मिले। 

Sunday 6 August 2017

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास के बल पर हम कह सकते है जो हम करना चाहते है वो कर सकते है। मै अच्छा आदमी तभी बन सकता हूँ यदि मुझमे आत्मविश्वास है और दृढ़ निश्चय है। आत्मविश्वास के लिए पाँच चीजो का होना जरुरी है-1:साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता 2:आशावादी दृष्टीकोण 3:सकारात्मक सोच 4:उत्साही मन 5:ऊर्जस्वी पराक्रम । अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक़ है उसके लिए सोचना यह है की हम कितनी गहराई में जमे बैठे संस्कारो को कैसे सुधारे ? जड़ो तक कैसे पहुचे ? जड़ के बगैर सिर्फ फूल पत्तो का क्या मूल्य? पतझड़ में फ़ूल पत्ते सभी झड़ जाते है। मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दिए की बाती तक न पहुचे । अपने आपको अपना भविष्य निर्माता मानिये और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिये । सोचिये की आज से एक वर्ष बाद , दो वर्ष बाद , पांच वर्ष बाद आप कहाँ पहुँचना चाहते है। जहाँ आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा की आप बदल सकते है। और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मविश्वास है।  महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दर्बलो में केवल इच्छाएं। 

चिंतन का महत्व

हमे हर दिन चिंतन करने की आदत डालनी चाहिए । अच्छी बातो को सुनने समझने गुनने से मानसिक शारीरिक आद्यात्मिक शक्ति बढ़ती है। मन मस्तिष्क मजबूत बनता है। हमारे भीतर सोचने की प्रक्रिया दिन रात चलती रहती है। संगति और वातावरण का प्रभाव भी चिंतन पर पड़ता है। विचारों में बदलाव चिंतन से ही संभव होता है। अच्छी अच्छी उपदेशप्रद पुस्तको के अध्यन से या उपदेश सुनने से चित्त की चंचलता दूर होती है। मन में चिंता की अग्नि नहीं धधकती । जीवन सुखमय व शांतिमय बन जाता है। चिंतन से उत्साह और आत्मविश्वास बढ़ता है। कार्य करने की शक्ति बढ़ती है। आँख ,कान ,और मुँह इन तीनो को नियंत्रित करना सीखे । न बुरा देखे न बुरा सुने और न बुरा बोले । कभी किसी से कटु या अप्रिय वचन न बोले। सदैव हँसते मुस्कुराते रहे। अपने पराये का भेदभाव कम करे।

दो भाइयों की बोधकथा।

इस कहानी से हम सबको जो education मिलती है,उस education को कोई न ग्रहण करे, तभी अच्छा है अब start करते है वह कहानी-दो भाई थे  सुबुद्धि और कुबुद्धि । सुबुद्धि शरीफ था पढ़ लिखकर ठीकठाक नौकरी कर रहा था। कुबुद्धि का पढ़ने लिखने में कोई ध्यान नहीं था, वह गुंडों बदमाशों के साथ रहता था,यदा कदा शराब भी पी लेता था। एक रात कुबुद्धि अपने दोस्तों के साथ शराब पी कर लौट रहा था तभी एक लड़की कही से लौट रही थी। कुबुद्धि ने उस पर कुछ comment कर दिया। लड़की ने जवाब में डाट दिया । कुबुद्धि को गुस्सा आया। सुनसान इलाका था। कुबुद्धि ने उसके साथ बलात्कार कर दिया उसे लग रहा था की लड़की इसकी शिकायत नहीं करेगी। पर लड़की ने थाने में शिकायत कर दी। कुबुद्धि गिरफ्तार हो गया। कुबुद्धि के पिता ने पहले तो उसे खूब गालिया दी,फिर उसे बचाने के रास्ते खोजने लगे। उसकी माँ ने कहा-वह लड़की ही बदचलन है । रात में क्यों घूम रही थी। मेरे बेटे को गलत फसाया गया है। जाति के नेता लोग इकठ्ठा हो गए उन्होंने कहा-लड़के है गलती हो ही जाती है अब इस गलती के लिए क्या लड़के की जिंदगी बर्बाद होने दे। उन्होंने लड़की के पिता पर दबाव डाला की तुम्हारी लड़की की जिंदगी तो बर्बाद हो ही गई अब लड़का क्यों बर्बाद हो ? पुलिस वालो की मदद से पैसा वैसा लेकर matter ख़त्म कर दिया। सुबुद्धि ऐसा नहीं था उसे एक लड़की से सच में प्रेम हो गया और उसने उससे शादी करने की ठान ली। लड़की सुंदर थी पढ़ी लिखी भी ,लेकिन दूसरी जाति की थी। । माता पिता ने कहा -लड़के ने नाक कटा दी,बिरादरी में हमारी इज़्ज़त क्या रहेगी? माता पिता ने सुबुद्धि और उसकी प्रेमिका की हत्या कर दी।

Saturday 5 August 2017

मन की गहराई

तुम अपनी तरफ नहीं देखते की जिस मन में तुम भरते चले जा रहे हो वह बिना पेंदी का है। हमारा मन एक छिद्र की तरह है जिसमे नीचे कोई तलहटी नहीं है। इसलिए संतोष की तलाश हो, शांति की प्यास हो तो मन के पार जाना जरुरी है। मन से जो भी खोजेंगे वह कभी मिलेगा नहीं । ध्यान की स्थिरता में सारी demand खो जाती है और तब आप भर जाते है।अपने मन को समझना हो तो उसके स्वभाव को समझना जरुरी है। जिंदगी में आपको कितना भी मिल जाये कभी संतोष नहीं होता है। मन जितना भी तेज़ क्यों न दौड़े जीवन की एक अपनी गति भी है। तभी निरंतरता और अनिश्चितता दोनों बने रहते है। जब आप सोचते है की सब ठीक है तब कुछ बुरा हो जाता है। और जैसे ही लगता है की अब कुछ बेहतर नहीं हो सकता कुछ बेहतरीन हो जाता है। शब्द चोट पहुचाते समय सबसे बड़े और मदद देते समय सबसे छोटे रूप में होते है। 

Friday 4 August 2017

आपकी क्षमता

बॉस ने उनसे कई बार यह सवाल पूछा की कैसे हम कंपनी का आउटपुट बढ़ाये ,उसके उत्पाद में वृद्धि लाये। एक दिन उन्होंने सोचा की कभी हम अपना आउटपुट बढ़ाने के बारे में तो सोचते ही नहीं है। जो यह सोचते है वे निश्चित तौर पर आगे रहते है उनका दिमाग समृद्ध होता है।आप हमेशा साबित कर सकते है की आपकी क्षमता उतनी है, जितनी क्षमता का विश्वास आपके मन में है।आप उतना ही काम कर सकते है जितना ठान सके । जो नए काम को यह कहकर नहीं स्वीकारते की उनके पास पहले से ही काफी काम है वे हमेशा पीछे रहते है। किसी के पास काम ज़्यादा नहीं होता। होता है तो अपनी क्षमता के सही आकलन का अभाव । कोई भी नया प्रोजेक्ट किसी को सौपने से पहले वह गौर करते है की किसके पास काम की कमी नहीं है, वही ठीक से नया काम ले पाते है। वे काम आगे बढकर लेते ही नहीं, बल्कि उसे समय पर भी पूरा करते है। काम का रोना नहीं रोने वाले ऐसे लोग होते है जिन्हें अपनी क्षमता पर यकीन होता है। वे सीधी सोच वाले नहीं होते। उनकी सोच out of box होती है। वे काम धडाल्ले से करते है और ज्यादा भी। उनके काम में परफेक्शन भी होता है। 

प्रशंसा की जरुरत।

वह चाहकर भी दुसरो को प्रशंसा नहीं कर पाते । दरअसल उन्होंने जब भी अपने वरिष्ठ , अधिक सामाजिक आर्थिक हैसियत वालो की प्रशंसा को, उन्हें मक्खनबाज़ का तमगा पहना दिया गया। आखिरकार उन्होंने प्रशंसा करने से ही कन्नी काटनी शुरू कर दी। ऐसी स्थिती किसी के भी साथ हो सकती है।  प्रशंसा की जरुरत सबको है प्रत्येक व्यक्ति में सैकड़ो ऐसी  बातें है जिनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन हममे से तो ज्यादातर डरे रहते है की कही इसे गलत न समझ लिया जाये। हम यह नहीं समझ पाते की व्यक्ति जितना सफल हो जाये , प्रशंसा पाने की सोच हमेशा उस पर हावी रहती है। प्रशंसा में सच्चाई वैसी ही होनी चाहिए , जैसी बर्फ में सफेदी होती है और पानी में प्यास बुझाने की क्षमता । प्रशंसा तभी फलित होती है,जब वह उद्देश्यहीन हो। ऐसा करके, कुछ पाने की अपेक्षया न की जाये ।आपको जितना  अपेक्षया से दूर रहेगे आपको उतना ही लाभ होगा। सामने वाला आपके काम से ही नहीं आप के मान सम्मान से भी जुड़ेगा।

Wednesday 2 August 2017

सिर्फ सोचना काफी नहीं।

सुखद योजनाये बनाते समय आदमी को बड़ा सुख मिलता है। इस सुख के कारण विभोर होकर वह उनमे डूबकर रह जाता है। प्रत्येक दस व्यक्तियों में से नौ ऐसे होते है जो योजनाएं तो बहुत बनाते है पर करते कुछ भी नहीं । ऐसी बात नहीं की उनमे क्षमता  की कमी होती है या वे उसके योग्य ही नहीं होते बस एक सबसे बड़ी दुर्बलता होती है की सोचने के बाद अपनी सोच को वे कार्यरूप नहीं दे तो यही कारण है की असफल लोगो की संख्या सबसे ज्यादा है। नेपोलियन तत्काल सोचता ,निर्णय करता और अपने निर्णय को कार्यरूप में परीणत करता। अपनी इसी क्षमता के कारण वह यूरोप का सम्राट बना। इंग्लिश चैनल को पार करने के लिए स्मिथ ने नौ बार निरंतर प्रयास किया  तब जाकर दसवी बार में उसे कामयाबी मिली इसी तरह असंख्य लोग ऐवरेस्ट पर चढ़ने की कोशिश निरन्तर करते रहे पर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नार्वे ने विजय हासिल की। असफलता या पराजय की हार के बारे में सोचकर अगर यह लोग घर बैठ जाते तो क्या वे कभी विजेता बन पाते? बेंजामिन डिजरायली ने सौ बातो की एक बात लिखी है सोचो मत करो इसे एक नए अर्थ में इस तरह से लिया जा सकता है की जो सोचो सो करो। इस पथ पर चलकर अपना कायाकल्प करके अपने जीवन को क्रियाशील करके ही हम कामयाबी के नए नए शिखरों को छु सकते है। 

अजनबी से मिलने का सुख।

जब लोग एक दूसरे से मिलते है तो इतनी विनम्रता से, इतनी भद्रता से मिलते है की ऐसा लगता है की प्रेम और मित्रता में डूबे हुए है। उनकी मुस्कान ,बातचीत का स्वर ,बॉडी लैंग्वेज सभी कुछ सकारात्मक होता है। लेकिन थोड़े करीब आते ही दो चार दिन में वे अपने दुखो का रोना शुरू कर देंगे। पहले जब मिला था ,तो उसका चेहरा और था,फिर धीरे धीरे चेहरे की ख़ुशी ,वह धोखा था, जो पलस्तर था, वह है जायेगा जैसे लोग चेहरे का मेकअप करके जाते है वैसे मन का भी मेकअप करके जाते है। इसलिए अजनबी आदमी से मिलने का सुख मिलता है । सुख का कुल कारण इतना है की दोनों थोड़ी देर एक दूसरे को धोखा देने में सफल रहते है। परिचित लोगो से बिलकुल सुख नहीं मिलता क्योकि वे सब उपद्रव प्रकट क्र देते है आकर। जो लोग करीबी दोस्त बनते है उनसे ही दुश्मनी भी शुरू हो जाती है। दुश्मन बनने से पहले दोस्त होना बहुत जरुरी होता है। आदमी अंदर बाहर से एक नहीं है। ख़ुशी बाहर सजाकर रखता है, दुःख भीतर छिपाकर रखता है। जब तक आदमी शांत और सुखी नहीं हो सकता । दिखावा करने की जरुरत भी क्या है?  सभी के तराजू में कुछ ना कुछ दुःख होता ही है। आप कितना भी छिपाये दूसरे को पता चल ही जाता है। तो सुकून की जिंदगी जीनी हो तो यह धोखाधड़ी बंद करे।

दोषी ठहरा देना।

दरअसल गुस्सा आते ही हम सामने वाले को दोषी मानने लगते हैं यही से गुस्सा जिद पकड़ लेता है। अगर हम सहज सामान्य है, तो गुस्सा आएगा ही । लेकिन लंबे समय तक गुस्से का बने रहना ठीक नहीं है  अगर कोई चीज आपके मन मुताबिक नहीं होगी। अगर कही कुछ गलत होगा, तो गुस्सा आएगा ही। लेकिन उससे चिपके रहना अपने ऊपर बोझ लाद लेना है। जिंदगी का सीधा सादा फंडा यही है की हमे किसी बोझ के साथ नहीं जीना चाहिए । ऐसा नहीं है की हम पर कोई बोझ आएगा ही नहीं । लेकिन हमे उस बोझ को जल्द से जल्द उतार देना है। हम पर बोझ आता है, तो हम क्या करते है?  कोशिश करते है की उससे जल्द ही छुटकारा मिल जाये । उसी तरह से हमे गुस्से के बोझ को भी समझना है।

संवेदनशील होना।

दरअसल संवेदनशीलता हमारी कमज़ोरियों पर भारी पड़ती है। आप जब दुसरो को समस्याओं से घिरा देख नहीं पाते और उनकी मदद का हाथ बढ़ाते है तो अपने अस्तित्व को सार्थक कर रहे होते है। रंग बिरंगी चीजो के पीछे भागते हम केवल अपने लिए जीने लगते है । इतने स्वार्थी हो जाते है  की खुद की परेशानी सबसे बड़ी लगने लगती है और दुसरो का जीवन हमारे लिए मायने नहीं रखता। हम 

Tuesday 1 August 2017

अपनी खुबिया तो जान लो।

काम करते करते हमे ही पता नहीं चलता की हमारी खूबी क्या है? हम अपनी ताकत का अंदाज नहीं लगा पाते । ख़ामियों पर तो बाहर से खासा हमला हिट है। इसलिए उनका अंदाजा तो हमे आसानी से हो जाता है। लेकिन.....खूबियां हमारे भीतर होती है हम उनके साथ काम करते रहते है। हमारी जो खूबियां होती है वही हमारी ताकत होती है।एक मायने में वही हमारी क्षमता भी होती है और सम्भावना भी। जब हम अपनी खूबियों के बारे में जानते समझते है,तभी हम अपना बेहतरीन दे पाते है। होता यह है की हमे अपनी खूबियां साधारण सी लगती है।लेकिन वह होती असाधारण है। अगर यह समझ में आ जाये तो हमारी जिंदगी बदल जाती है। हम अपनी खूबियों को साधारण समझकर काम करते रहते है और साधारण घेरे में ही बने रहते है। हमे जब महसूस होता हो जाता है की खुबिया साधारण नहीं है तोह हम उस घेरे को तोड़ने में जुट जाते है। एक दिन वह घेरा टूट भी जाता है। और हम कुछ अलग काम कर पाते है। अपनी संभावनाओ को एक अलग आयाम दे देते है।

समस्याओं के निर्माता

समस्याओं को बड़ा चढ़ा कर देखना हमारी आदत होती है। समस्या एक पिचके गुब्बारे की तरह है। आप हवा भरेंगे तभी वह बड़ी होगी इससे बचना है तो खुद को बिल्कुल सामान्य रखना होगा। समस्याओं से खुद को अलग कर देखना होगा। जियो, नाचो, खाओ,सोओ । काम जितना हो सके समग्रता से करो और हमेशा इस बात का ख्याल रखो । की जब भी तुम देखो खुद को कोई समस्या निर्मित करते हुए ,उससे बाहर निकल जाओ।

तो बह चलो न।

दरअसल, इच्छशक्ति से हम जब कोई काम करते है, तो ऐसा लगता है मानो हम किसी उलट दिशा में बह रहे है, हमारा मन कुछ चाह रहा होता है और हम कर कुछ और रहे होते है। हमारा दिमाग कहता है की हमे यह करना है। और हमारा दिल उसके लिए तैयार नहीं होता है। फिर हमे लगता है की काम जरूरी है। उसे किसी हाल में करना है तब हमे इच्छशक्ति की जरुरत होती है। जब हम किसी काम को करने के लिए प्रेरित होते है,तो सब बदल जाता है। प्रेरणा हमे भीतर से जोश देती है,वह हमारे अंदर एक चिंगारी सुलगा देती है। तब हमारा दिल पूरी तरह हमारे साथ होता है उसी प्रेरणा की वजह से दिल और दिमाग एक हो जाते है। हम तब जो भी काम करते है,वह अपने आप बहाव में आ जाता है। और हम जानते है की जो काम हम बह कर करते है,वह कितनी तेज़ी से होता है।

बिना शर्त ख़ुशी।

सफलता की ख़ुशी ,साहस से कुछ हासिल करने की खुशी , परोपकार करने की ख़ुशी ,और सबके प्रति विनम्रता से जो ख़ुशी मिलती है इन सब खुशियो को हम भूल गए है। हम अपने अपने अंदर मौजूद ख़ुशी को ढूढ़ने के लिए ज्योतिषियो ,तान्त्रिकों और मांत्रिको के दरवाजे खटखटाने में लगे हुए है। ख़ुशी की हमारी यह खोज उनका कारोबार बढ़ा रही है। जो व्यक्ति आनंदित और तनावमुक्त रहेगा ,वह उतनी ही जल्दी मनचाही चीजो को प्राप्त कर लेगा। बात बात में हताश निराश होने वाले लोग जीवन में बहुत पीछे छूटते चले जाते है। आनंद के समय में आपकी जीवन ऊर्जा काम केंद्र से ऊपर मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होने लगती है। जबकि निराश के moment में मूलाधार की ओर जाने लगती है। यानि जो कुछ शाक्ति हैं आपकी वह विसर्जित होकर शरीर से बाहर चली जाती है। जिसने  भी शर्त लगाई है,वह शर्तो के चंगुल में फंसकर रह गया है। खुश रहना हमारी आदत में शामिल होना चाहिए था,जबकि उसकी जगह हताशा निराशा आकर बैठ गई है। खुश रहना सन्देह का कारण बनता जा रहा है। यह नजर्ये