यह अनुमान सही नहीं है की जो सुखी और साधन संपन्न होता है , वह प्रसन्न रहता है। और यह भी जरुरी नहीं है की जो प्रसन्न रहता है वही सुखी और साधन संपन्न है। प्रसन्न्ता विशेष रूप से ऐसी मनोदशा है जो पूर्णतया आंतरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है । गरीबी में भी मुस्कराने और कठिनाइयों के बीच भी जो खोलकर हँसने वाले अनेक व्यक्ति देखे जा सकते है। इसके विपरीत ऐसे भी अनेक लोग है जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन सम्पन्नता है, पर उनकी मुखाकृति तनी रहती है। क्रुद्ध , चिंतित, असंतुष्ट रहना मानसिक दुर्बलता मात्र है जो अंत: करण की दृष्टी से पिछड़े हुए लोगो में पाई जाती है । परिस्थितिया नहीं , मनोभूमि का पिछड़ापन ही इसका कारण है। संतुलित दृष्टीकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हँसते हँसते रहते है। वे जानते है की मानव जीवन सुविधाओं असुविधाओं अनुकलता और प्रतिकूलता के ताने बाने से बुना गया है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा जिसे केवल सुविधाओ और अनुकूलताएं ही मिली हो और कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। इसके प्रतिकूल जिसने अनुकूलताओं पर विचार करना आरंभ किया और अपनी तुलना पिछड़े हुए लोगों के साथ करना शुरू किया उसे लगेगा की हम करोड़ो से अच्छे है।
हमारे पास जो प्रसन्न्ता है, वह एक वरदान है हँसने हँसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा , किन्तु जिन्हें अशुभ चिंतन की आदत है , दुसरो के दोष , दुर्गुणों और अपने अभाव , अवरोध खोजने की आदत है, ऐसे लोग परेशान रहते हैं वे असमंजस और दुखी रहते है रोष उनकी वाणी से और असंतोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा। ऐसे व्यक्ति स्वयं दुखी रहते है। हमे अंसन्तुस्ट और कुद्ध नहीं रहना चाहिए । इससे मानसिक विकृतिया उत्पन्न होती है और बढ़ती चली जाती है। आग जहाँ रहेगी , वही जलायेगी । असंतोष जहाँ रहेगा, वहीँ दूरियां पैदा करेगा और उससे सारा मानसिक ढांचा लड़खड़ाने लगेगा।
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