Thursday 10 August 2017

मनुष्य और प्रकृति

ईश्वर ने हर जीव को जो कुछ दिया है , उसके कर्मो और उसकी योग्यता के अनुसार दिया है। मनुष्य इसके बाद भी संतुष्ट नहीं है और ईश्वर की सत्ता और व्यवस्था में किसी न किसी भाँति दखल देता रहता है । मनुष्य की सोच है की वह इससे उत्तम परिस्थितिया उत्पन्न कर सकता है। उसने पहाड़ , जंगल , पेड़ काट डाले नदियो के रुख मोड़ दिए और वह खनिजो का दोहन कर रहा है। वातावरण पर नियंत्रण करना चाहता है और अपनी गढी हुई परिभाषा के अनुरूप सुख प्राप्त करना चाहता है। वह परमात्मा के प्रति एक तरह का अविश्वास है । सृष्टि में जो कुछ है , प्रचुरता में है और जीव के उपभोग के लिए है। सामान्य उपभोग से न तो फल , वनस्पतियो और खाद्यान समाप्त होने वाले है और न जल। वायु भी कभी चुकने वाली नहीं है। मनुष्य के अविवेक और अधीरता ने इन पर भी संकट खड़ा कर दिया है । मनुष्य अपने प्रारब्ध से आधिक पाना चाहता है- वह भी ईश्वरीय व्यवस्था को भंग करके । वह कितना भी चातुर्य प्रदर्शित कर ले ईश्वर की उच्चता को नहीं पा सकता है इस कारण अंततः दुखी होता है। एक बार एक कुशल मूर्तिकार ने अपने जैसी कई मूर्तियां बना ली और उनमे  छिपकर बैठ गया ताकि यमराज के दूत उसे लेने आये तो पहचान न सके । वक़्त आने पर जब दूत आये तो उसे पहचान न सके और यमराज को जाकर सारी बात बताई। यमराज ने एक युक्ति बता कर अपने दूत पुनः भेजे। दूतों ने आकर कहा की वाह तुम तो बड़े कुशल मूर्तिकार हो, किन्तु एक गलती कर आये हो। मूर्तिकार का अहं जाग गया और वह तुरंत दहाड़ कर बोला की मैं कोई गलती कर ही नहीं सकता । वास्तव में यह अहंकार ही उसकी सबसे बड़ी गलती थी जिससे यमराज के दूतों ने उसे पहचान लिया। आज मनुष्य के साथ भी यही हो रहा है । अपने अहंकार के चलते वह विध्वंश की ओर बढ़ रहा है। यदि पृथ्वी पर पेड़ो , पहाड़ो , नदियो की आवश्यकता न होती तो ईश्वर उनकी रचना क्यों करता। मौसम का बदलना , दिन और रात का होना, जन्म और मृत्यु सभी किसी विधान के तहत है । इसमें सृष्टी का संतुलन और उपादेयता निहित है। मनुष्य को बुद्धि आत्मिक विकास और आवागमन के फेर से मुक्ति के लिए मिली , किन्तु उसका उपयोग वह सृष्टी के नियमो से मुक्त होने के लिए कर रहा है। 

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