Wednesday 9 August 2017

सदबुद्धि

समस्त दुखो की जननी कुबुद्धि है और समस्त सुखो और शांति की जननी सदबुद्धि है। कुबुद्धि हमे आनंद से वंचित करके नाना प्रकार के क्लेश, भय और शोक संतापो में फंसा देती है। जब तक यह कुबुद्धि रहती है तब तक कितनी ही सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी चैन नहीं मिलता । एक चिंता दूर नहीं हो पाती की दूसरी सामने आ खड़ी होती है । इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए सदबुद्धि जरुरी है । इसके बिना शांति मिलना किसी भी प्रकार संभव नहीं। संसार में जितने भी दुःख है, कुबुद्धि के कारण है। लड़ाई -झगड़ा , आलस्य , दरिद्रता , व्यसन , व्यभिचार , कुसंग आदि के पीछे मनुष्य की दुर्बुद्धि ही काम करती है। इन्ही कारणों से रोग , अभाव , चिंता, कलह आदि का भी प्रादुर्भाव होता है और नाना प्रकार की पीड़ाएँ सहनी पड़ती है । कर्म का फल निश्चित है, ख़राब कर्म का फल ख़राब ही होता है। कुबुद्धि से बुरे विचार बनते है। उपासना के फलस्वरूप मस्तिष्क में सदविचार और ह्रदय में सदभाव उत्पन्न हो जाते है, जिसके कारण मनुष्य का जीवनक्रम ही बदल जाता है। अंगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गर्म हो जाती है और उसमे बैठे हुए सभी मनुष्य सर्दी से मुक्त हो जाते है। उसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से सदबुद्धि की शरण लेते है तो उन्हें स्वयं तो शांति मिलती ही है, साथ ही उनकी साधना का सूक्षम प्रभाव घर पर पड़ता है और चिंताजनक मनोविकारों का शमन होने व सुमति , एकता , प्रेम, अनुशासन और सदभाव की परिवार में वृद्धि होती है। साधना निर्बल हो तो प्रगति धीरे धीरे होती है, पर होती अवश्य है। सदबुद्धि एक शक्ति है जो जीवनक्रम को बदलती है। उस परिवर्तन के साथ साथ मनुष्य की परिस्थितिया भी बदलती है। सदबुद्धि आत्म-निरीक्षण , आत्म शुद्धि , आत्म उन्नति और आत्म साक्षत्कार करने की शक्ति उत्पन्न कर देती है। जैसे ही मनुष्य के अंत:करण में सदबुद्धि का पदार्पण होता है वैसे ही वह अपनी कठिनाइयों का दोष दुसरो को देना छोड़कर आत्म निरीक्षण आरम्भ कर देता है। अपने अंदर जो त्रुटिया है उन्हें तलाशता और हटाता है। ऐसी गतिविधि ग्रहण करता है जो अपने और दुसरो के कष्ट बढ़ाने में नहीं , बल्कि सुख सुविधा के उत्कर्ष में सहायक हो।

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