Friday 11 August 2017

सद्गगति

हमारे कर्म ही हमे गति देते है। यदि हम अच्छे कर्म करते है तो सदगति को प्राप्त करते है, गलत कर्म से दुर्गति मिलती है। कर्म छोटा  या बड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म ही मनुष्य को छोटा बड़ा बनाते है। हम जैसे कर्म करते है, उसका वैसा ही फल हमे मिलता है। हमारे द्वारा किये गए कर्म ही हमारे पाप और पुण्य तय करते है। हमारे जीवन में कुछ अच्छा या बुरा होता है तो उनका सीधा सम्बन्ध हमारे कर्मो से होता है। कहा गया है की जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते । हमे सिर्फ काटे ही मिलेगे। एक डाकू या लुटेरा भी यही सोचता है की वह अच्छे कर्म कर रहा है । लूटपाट करके ही सही , अपने परिवार का पेट तो भर रहा है, लेकिन जब साधुओं ने एक डाकू से पूछा की क्या इस पाप में तेरा परिवार भी भागी बनेगा तो वह असमंजस में पड़ गया और भागा भागा अपने परिवार के पास गया । उसने परिवार के सदस्यों से यही प्रश्न किया तो सभी ने एक स्वर में कह दिया की तुम्हारे पापो में हम भागीदार नहीं है। तब जाकर उसकी आँखे खुली । हमारे कर्मो में इतनी ताकत होती है की डाकू तक अपने कर्म सुधारे तो वे महर्षि बन सकते है। 

दुनिया हमे हमारे काम से ही पहचानती है। तभी कहा गया है की अपने कर्मो की गति सुधारो । कर्म सुधर गए तो जीवन सुधर गया । अच्छे कर्मो से मनुष्य जीते जी तो याद किये ही जाते है, मृत्यु के बाद भी उनका नाम अमर हो जाता है । हमारे कर्म में हमेशा कोई न कोई उद्देश्य छिपा होना चाहिए । उद्देश्य के बगैर कर्म बहुत असरकारक नहीं होता । एक बुजुर्ग व्यक्ति ने यात्रा पर जाने से पहले अपनी बहुओ को कुछ बीज दिए और कहा की इन्हे संभलकर रखना। जब मैं लौटूगा तो इन्हे वापस ले लूंगा। पहली बहू ने बीज बक्से में संभलकर रख दिए, लेकिन कुछ समय बाद ही वे सड़ गए। दूसरी बहू ने उन बीजो को बो दिया तो कुछ दिनों बाद वे अंकुरित हो गए और पौधे में तब्दील हो गए । बुजुर्ग जब यात्रा से लौटे और उन्होंने आँगन में नए पौधे देखे तो वे अपनी छोटी बहु से बहुत खुश हुए। हमारे कर्म हमारी सोच पर निर्भर करते है। यानि हम जैसा सोचते है वैसे ही कर्म करते है और उसी के अनुरूप हमे फल  भी मिलता है। अपने कर्मो के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेदार होता है। गीता में भी कहा गया है की फल से ज्यादा कर्म को ही महत्ता दी जानी चाहिए।

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