Saturday 12 August 2017

आलोचना

आलोचना से कोई भी नहीं बच सकता । जो मनुष्य जितना बड़ा होता है, उसकी आलोचनाये भी उतनी ही बड़ी होती है। इसलिए आलोचना से घबराकर धैर्य नहीं खोना चाहिए । आलोचना दो प्रकार की होती है-रचनात्मक और विध्वंसात्मक। हर एक व्यक्ति को जीवन में किसी न किसी समय आलोचना का शिकार होना पड़ता है । आलोचक को कभी शत्रुता नहीं माननी चाहिए की वह बदनाम करने के लिए आरोप लगा रहा है।ऐसा सदैव नहीं रहता। भ्रम भी कारण हो सकता है। घटना का सही उद्देश्य सही रूप से न समझ पाने पर लोग मोटा अनुमान यही लगा लेते है की शत्रुतावश ऐसा कहा जा रहा है। निंदा करना वालो का इसमे घाटा ही रहता है। यदि उसकी बात सत्य है तो भी लोग चौकान्ने हो जाते है की कही हमारा भेद इसके हाथ हो नहीं लग गया है जिसे यह हर जगह बकता फिरे। झूठी निन्दा बड़ी बुरी मानी जाती है। निंदा सुनकर क्रोध आना और बुरा लगना स्वाभाविक है क्योकि इससे स्वयं के स्वाभिमान को चोट लगती है पर समझदार लोगो के लिए उचित है की ऐसे अवसरों पर धीरज से काम ले। आवेश में आकर विवाद न खड़ा करे। यह देखे की ऐसा अनुमान लगाने का अवसर उसे किस घटना या कारण से मिला। यदि उसमे व्यवहार कुशलता संबंधी भूल हो रही हो तो उससे बचकर रहे। यदि बात सर्वथा मनगढ़ंत सुनी सनाई है तो अवसर पाकर यह उन्ही से पूछना चाहिए की उसने इस प्रकार ग़लतफ़हमी क्यों उत्पन्न की  एक बार कारण तो पूछ लिया होता इतनी छोटी से बात के लिए उसका मुख भविष्य के लिए बंद हो जायेगा और यही कही बात सत्य है तो आत्म सुधार की बात सोचनी चाहिए। 

आलोचना की गई बातो को सत्यता की कसौटी पर कसे। प्राय: बातें असत्य होती है। कभी कभी आलोचना को accept कर लेना भी उचित होता है। यदि सत्य है तो accept करके सुधार कर लेना चाहिए। निरर्थक आलोचना को importance न दे और आगे बढ़ते रहे। आलोचना की विश्वासता को जाँचे। अनेक बार लोग केवल ईर्ष्या वश या लड़ाकर तमाशा देखने के लिए ही आलोचना करते है, इस पर कतई ध्यान न दे। आलोचना से स्वयं को सुधार करने का सुअवसर मिलता है। अपने मित्रो को मन की स्थिति का पता चलता है।

No comments:

Post a Comment